Wednesday, December 30, 2009

कैसे रिश्ते, कैसे नाते...

कैसे रिश्ते, कैसे नाते...
स्वार्थ में उलझे कच्चे धागे.
सामाजिक जन झेल रहे है...
कोई इनसे कैसे भागे?

जहाँ फायदा कुछ दिखता है...
वहीँ नया रिश्ता उगता है,
लालच और बनावट जीती
स्नेह भरा सच अब झुकता है।

चेहरे पर नकली मुस्काने...
मन में नीम करेले पाले,
फूल दिखा कर चुभा रहे है...
तीखे जहरीले से भाले।

टूट रहे वो मन के बंधन,
स्नेह भरे वो मीठे प्याले...
बूढी जर्जर सी कोठी के..
लगते है अब चिपके जाले.

Tuesday, December 29, 2009

उड़ान

तुमने पंख दिए और कहा उड़ो वहां तक
जहाँ पंहुच कर कोई छोर न दिखे
जहाँ पंहुच कर अंत का भी अंत हो जाये

मै उड़ी...
उस ऊंचाई को देख पहले हिचकिचाई
फिर उड़ चली इस विश्वास के साथ
की तुम साथ हो

जब डगमगाई संभाला तुमने
फिर एक दिन तुम डगमगाए
या शायद तुम डगमगाए नहीं
वो तुम्हारा उड़ने का तरीका था

और तुम्हे उस डगमगाहट से सँभालने में
मै भी डगमगा गयी
इतनी ऊंचाई पर पहुँच कर डगमगाने से
शरमाई, घबरायी सी मै
तुमसे नज़र मिलाने से कतराती हुई
उड़ चली दूर

और बैठ कर एक पेड़ की ओट में सोचने लगी
मै क्यों भागी तुमसे नज़रें चुराती हुई?
तुम तो सब जानते थे
मेरी उड़ान, मेरी थकान के बारे में

फिर मेरा डर मेरी घबराहट तुम्हे समझ क्यों नहीं आई?
क्यों तुमने कहा...
ठीक है बैठी रहो उस पेड़ की ओट में
अगर तुम डरती हो डगमगाने से

साथी होने के नाते
कोई ऐसा रास्ता भी तो बता सकते थे
जिसपर चलते हुए मुझे डगमगाना न पड़े

लेकिन अब उस डगमगाहट ने सिखा दिया मुझे
लड़खड़ा कर संभालना
बिना डर के उड़ना

अब मेरी उड़ान तुमसे ऊपर है
और मै जानती हु जब तुम ऊपर देखते हो
तो शर्मिंदा से सोचते हो
इतनी जल्दी क्यों की तुमने निर्णय लेने में.

लेकिन पछताओ मत
मै आज भी तुम्हारे साथ हूँ
तुम्हारी उड़ान और डगमगाहट में
क्यों की मेरी आदत है ज़मीन की और देखते हुए चलना
इसलिए नहीं की उड़ने से ज्यादा मुझे चलना पसंद है
बल्कि इसलिए की नीचे देखने पर तुम दिखाई देते हो.

Monday, December 28, 2009

सांवली परी

देखा मैंने एक सांवली परी को
बिखरे हुए बाल और काजल लगी आँखे
सूती फ्राक और घिसा हुआ स्वेटर
घुटनों के बीच हाथों को सिकोड़े हुए
खुद को ठिठुरन से बचाने की कोशिश करती हुई
एक ठेले पर बैठी चली जा रही थी

मै गर्म सूट और नर्म टोपी लगाये हुए
ऑफिस जाने की जल्दी में
पति की स्कूटर की पिछली सीट पर बैठी
रेलवे क्रोसिंग के खुलने का इन्जार कर रही थी
और साथ ही साथ उस ठण्ड को...
महसूस करने की कोशिश करती रही
जिसे वो अभी झेल रही थी

दूसरे दिन फिर दिखी मुझे एक और नन्ही परी
जो पहली परी से भी छोटी थी
लगभग तीन साल की वो परी
अपने भाई का हाथ पकडे
भागी चली जा रही थी
अपने नन्हे नंगे पैरों पर चुभने वाले...
किसी भी कांटे की परवाह किये बिना

मै सोच ही रही थी की कुछ करू इसके लिए
तभी साथ खड़ी मेरी मित्र बोली
देख रही हो उस बच्ची को
तीन दिन पहले मैंने इसे एक जोड़ा जूते दिए थे
ताकि उन्हें पहन कर ये ठण्ड से बच सके
लेकिन उसे जूते न पहना देख जब मैंने पूछा
की क्यों अभी तक तुमने वो जूते नहीं पहने
वो बोली माँ कहती है वो जूते पहन लूगी
तो और नहीं मिलेगे

Sunday, December 27, 2009

गुम हुए तुम फिर भी कोई नूर सा फैला गए..
आस्मां से कुछ फ़रिश्ते इस ज़मीं पर आ गए...
तुम तो जा बैठे हो छुपकर जाने किसकी ओट में...
नम सा मौसम करके कितनी बारिशें बरसा गए.

याद तुमको हम करें ऐसा कभी होता नहीं...
भूलने की कोशिशों में यादों पर तुम छा गए.
खूबसूरत चेहरे न मुझको लुभा पाए कभी...
रूह जब देखी तुम्हारी तुम तभी से भा गए।

जब तलक थे साथ तुम खुशियों के मौसम थे तमाम...
साथ जबसे तुम नहीं, गम आये आकर न गए.
लेके इतना नेक दिल किसने कहा था आइये...
आये थे तो क्यों गए हमपर सितम क्यों ढा गए?

Friday, December 25, 2009

खुशियों के लम्हों की कीमत मुझसे पूछो...
गम पल में कैसे आते है मैंने देखा,
हर मुस्कान के पीछे का सच ख़ुशी नहीं है,
झूठ बोलती है अक्सर वो टेढ़ी रेखा.

Tuesday, December 22, 2009

वो भी औरत और तुम भी...

वो भी औरत और तुम भी...
उसकी आँखे भी कजरारी और तुम्हारी भी
उसकी पलकें भी झुकी हुई और तुम्हारी भी
उसका चेहरा ढका हुआ सिर्फ आँखे दिख रही
तुम्हारा चेहरा भी ढका हुआ सिर्फ आँखे दिख रही
तुम्हारा चेहरा छुपा है लेपटोप के पीछे
जिसमे डाटा केबल लगाये हुए....
इन्टरनेट पर तुम जुड़ रही हो सारी दुनिया से,
लेकिन उसका चेहरा छुपा है काले से नकाब के पीछे
जिसमे सिमट कर वो खुद को....
दुनिया से छुपाने की कोशिश कर रही है.

Tuesday, December 15, 2009

महसूस करना

महसूस करना कभी कभी शाम कितनी खूबसूरत लगती है
जब ढलते हुए सूरज की सुनहरी रौशनी
दरवाजों से झांकते हुए फर्श पर बिखरती है.

हाथ में गर्म चाय का प्याला लिए हुए
आसमान की और देखना
न जाने कितने परिंदों के झुण्ड अपने घोसलों को लौटते है

मस्जिदों की अज़ान और मंदिरों के घंटे न जाने कैसी कशिश पैदा करते है
इन सबके बीच याद आते है वो दिन...
जब पापा ऑफिस से आते थे,

माँ बड़े करीने से तैयार होती थी
अपने लम्बे बालों की चोटी बनाती माथे पर कुमकुम लगाती
और कंघी की नोक से सिन्दूर की एक पतली सी रेखा अपनी मांग में भरती

और मै बड़े ध्यान से उन्हें ऐसा करते देखती
और सोचती रह जाती
ये माँ है या परी

मुझे बड़ा अच्छा लगता जब माँ करवाचौथ पर
शादी की पीली सितारों वाली साडी पहनती थी
पैरों में आलता लगाती और पूजा की थाल लेकर मंदिर जाती

शाम को पापा जब ऑफिस से आते, हाथों में ताज़ी दातुन , फलों का थैला
और कभी कभी एक बड़ा सा तरबूज साथ लाते
जिसे पूरा परिवार एक साथ बैठ कर खाता था

अब न वो दिन है न पापा, लेकिन फिर भी शाम तो है
जो हर रोज़ आती है,
नित नयी कहानी कहने.

Thursday, December 10, 2009

तुम्हारा काम मै अब तक न कर सकी

तुमने कहा था...
पूरा कर देना मेरा वो काम,
जो अधूरा पड़ा है न जाने कबसे.
सदियाँ बूढ़ी हो गयी...
पर्वत परतों का खज़ाना इकठ्ठा करते रहे...
फूल खिल खिल कर गिरते रहे...
सितारे आवारा बनकर फिरते रहे....
लेकिन तुम्हारा काम मै अब तक न कर सकी.

वो नन्हा पौधा जिसको लगाते समय,
मैंने देखा था
वो ढक गया था मेरे तन की छाया से...
आज उसकी छाया में बैठी हूँ मै,
लेकिन तुम्हारा काम मै अबतक न कर सकी.

वो खुली खुली कालोनी
जिसमे रहती थी सपना और सलोनी,
जिसके इस छोर से उस छोर तक
पतंग से लेकर डोर तक
मंडराते थे हम शोख तितलियों की तरह
और गायब हो जाते थे पलभर में
आसमान की बिजलियों की तरह

वो कालोनी भी अब तंग हो गयी है
और वो पतंग भी न जाने कहा खो गयी है
वो नन्ही तितलियाँ अब बहुत शर्माती है
घर से बाहर निकलते हुए घबराती है
लेकिन तुम्हारा काम मै अबतक न कर सकी.

तेल लगाकर चोटी करने वाली...
ढेर सारी किताबों को बस्ते में भरने वाली
वो रंजू भी अब समझदार हो गयी है
उसके वो तेल लगे बाल अब हवा में लहराते है
उसके वो बंद होंठ अब चहचहाते हैं
उसके तन से अब उठती है महक
उसकी आवाज़ में अब रहती है खनक
अब वो हो गयी है अकलमन्द
लेकिन तुम्हारा काम अभी तक पड़ा है बंद.

वो कोमल मन जो सोचता था ....
गुड़िया की शादी कैसे रचाएंगे?
गुड्डे का घर कैसे बसायेंगे?
वो बिल्ली जो भीग गयी थी बारिश में...
उसे अब कहा छिपाएंगे?
उस मन को अब इंसानियत भी याद नहीं है
क्योंकि ये आज है कल के बचपन की बात नहीं है

जिस ओर घुमाई मैंने आँखे..
उस ओर सुनाई दी पुरानी सिसकती सांसे,
पुरानी कील पर एक नया कलेंडर
पुरानी गैस में एक नया सिलेंडर
पुरानी दीवार पर नयी पुताई
पुरानी ज़मीन पर एक नयी चटाई
ये सब है संभव
पर क्या संभव है पुराना तन और नया मन?

सबकुछ बदल गया पर नहीं बदला
मेरे तन का वो पुराना मन
मेरा वो बीता हुआ बचपन
जो चला आया अचानक सोते से जागकर
सालों, दिनों और महीनो की कैद से भागकर
रहता है वो मेरे मन में अमर बनकर
और मचल उठता है कभी कभी लहर बनकर

शायद इसीलिए मै तुम्हारा काम अभी तक न कर सकी
क्योंकि तुम भी बदल चुके हो
आधुनिक मानवो के साथ
भावनाओ रहित दानवो के साथ

काम निकलने के बाद तुम तो चल दोगे अपने रास्ते पर
नोटों की रोटी और सिक्कों की सब्जी के नाश्ते पर
पर मेरा ये पुराना मन तुम्हारी पुरानी यादों को कैसे भुलायेगा?
तुम तो चले जाओगे पर ये यादें कौन ले जायेगा?

इसलिए तुम आते रहो
और पूछते रहो अपने काम का हाल
और मै फिर यही कहूगी
न जाने क्यों मै तुम्हारा काम अबतक न कर सकी.

Wednesday, December 9, 2009

तुम्हारे नाम की वो ग्रीन लाइट

हम मिले वैसे ही जैसे मिलते है आज के युग के मित्र
ऑनलाइन वेबसाइट पर
न जाने तुम क्या खोजते हुए पहुंचे गए मेरी प्रोफाइल तक
और मंत्रमुग्ध से मान बैठे मुझे अपनी रशियन नोवेल की नायिका सा
जो बचपन से तुम्हारे मन में सेंध लगाये बैठी थी

तुम भी कम नहीं थे किसी से
सांवले सलोने, मोहक मुस्कान लिए
अपने शब्दों के तिलिस्म में....
किसी को भी कैद करने की क्षमता रखने वाले

जब भी तुम्हे सुनती सोचती कहाँ से आये हो तुम
इतना स्नेह किसी में कैसे हो सकता है?
कोई कैसे किसी को इतना चाह सकता है?
क्या मै इतने स्नेह के योग्य हूँ?

नहीं इतना समर्पण, इतना स्नेह अब बचा ही कहाँ मुझमे
जो था सब उड़ेल दिया घर परिवार में
ऐसा नहीं की तुम्हे सोचती नहीं
तुम्हारे लिए कोई भावना नहीं मन में

लेकिन तुम्हारे आगे सदा खुद को बौना पाया
इसलिए धीरे धीरे खुद को दूर कर दिया तुमसे
तुमसे कहा स्नेह नहीं मित्रता ही सही
पर तुम ठहरे आर या पार, स्नेह के सिवा कुछ नहीं

तुम्हारा स्नेह अब क्रोध बन चुका है
हटा दिया है तुमने मुझे अपनी प्रोफाइल, मेलबोक्स और स्क्रैप से
लकिन फिर भी मै चाहती हूँ की जब मै ऑनलाइन रहूँ
तो तुम्हारे नाम की वो ग्रीन लाइट जलती रहे
और मुझे ये आभास होता रहे की मेरा एक परम मित्र मेरे साथ है...:)

Tuesday, December 8, 2009

लम्हे

लम्हों को समेटना आसान नहीं...
चलते फिरते , सोते जागते समेटती रहती हूँ इन्हें
लेकिन बिखर ही जाते हैं.

कभी तकिये के सिरहाने छिपाती हूँ इन्हें,
कभी बांध लेती हूँ दुपट्टे के पल्लू में,
कभी छिपाती हूँ मन के कोने में...
तो कभी यूँ ही बिखेर देती हूँ ये सोचकर,
की फिर से समेट लूंगी इन्हें कुछ और नए लम्हों के साथ.

कुछ लम्हे बहुत हसीन है,
गुदगुदा जाते है मन को.
कुछ दर्द देते है चुभ से जाते है,
कुछ लम्हे हँसाते हैं,
और कुछ आँखों से फिसल कर...
गालों को नम कर जाते है.

तुम भी समेटना इन लम्हों को,
बड़े प्यार से, करीने से सजाना इन्हें,
क्योंकि जिंदगी के उन पलों में जब कोई साथ नहीं होता
ये लम्हे बहुत काम आते है.

तुम्हारे सर को अपने कन्धों पर रखकर
प्यार से सहलातें है,
ये एहसास करते है...
की तुम दुनिया में अकेले नहीं.

कभी बुलाकर देखना इन्हें...
ये समय की परवाह किये बगैर,
दौड़ते हुए आयेंगे.

तुम्हारी बाँहों को थाम कर,
तुम्हारे दिल का हाल सुनेगे,
कुछ अपनी भी सुनाएँगे.

और मुस्कुरा कर कहेंगे
Don’t worry be happy यार
मै हमेशा तुम्हारे साथ हूँ...
हर पल एक नए लम्हे के साथ.

Sunday, December 6, 2009

कविता

फिर चिटका मन और बह निकली कविता…
भरमाई, भोली सी, भीगी कविता,

सुख में साथ नहीं थी दूर खड़ी थी…
दुःख आया तो संग संग आई कविता,

नैनों में भर आये हर आंसू को…
सीपी में मोती सा रखती कविता,

भावों का करके सिंगार मनोहर…
पन्नों के घूँघट से ढकती कविता,

साथ नहीं जब संगी साथी कोई…
साथ निभाती, हाथ बढ़ाती कविता,

चुप सी काली रातों में भी जागी...
मुझे सुलाने की प्रयास में कविता,

जीवन के सारे भारी पल लेकर,
मन का सारा बोझ मिटाती कविता...

साथ बहुत से छूटे धीरे धीरे
साथ निभाती अंत समय तक कविता.

Friday, December 4, 2009

क्यूँ दर्द में यूँ डूबने लगता है दिल ?
क्यूँ जिंदगी से ऊबने लगता है दिल ?
क्यूँ झूठी मुस्कुराह्ते जुटाने में...
सच्चाइयों से जूझने लगता है दिल ?

Thursday, December 3, 2009

नींद कही सोयी है छुप कर...

नींद कही सोयी है छुप कर...
और मै अबतक जाग रही हूँ,
क्या है बेचैनी का कारण...
और मै किससे भाग रही हूँ.

काम बहुत से करने है पर...
मन न जाने कहा टंगा है,
सोच सोच कर थकी हुई हूँ...
किस रंग में ये आज रंगा है.

चुपके से मै लेम्प जलाकर...
लिखे जा रही मन की बातें,
सब जग सोया बस मै जागूं...
कैसी सन्नाटी सी रातें.

सोच रही हूँ कबतक जागूं..
अब सोने की कोशिश कर लूँ,
बिटिया सोयी बड़े चैन से...
अब उसको बाँहों में भर लूँ.

Saturday, November 14, 2009

गुमशुदा सी ज़िन्दगी में तयशुदा कुछ भी नहीं,
कुछ नहीं खुद का मगर खुद से जुदा कुछ भी नहीं,
देख कर गैरों के गम जब दर्द से दिल रो उठे...
बस यही तो है खुदाई और खुदा कुछ भी नहीं .
मरने की ख्वाहिशों में जीने लगे है हम…
जख्मों को चुपके चुपके सीने लगे है हम…
जब थक गए हम खुद के अश्कों को पोछकर…
गैरों के अश्क अब तो पीने लगे है हम.

Tuesday, November 10, 2009

तुम्हारे क़दमों की आहट
तलाशती फिर रही हूँ
बदल चुके मौसम में भी...
तलाश रही हूँ तुम्हारी खुशबु को।

की शायद ओस की किसी बूँद में
रेत पर ओंधे मुह पड़ी हुई पत्तियों के नीचे
वोगंवेलिया के उस झुरमुट के पीछे
या फिर ठण्ड से बचने की कोशिश में...
जलाई गयी टहनियों की उस गुनगुनी राख में

बची रह गयी हो तुम्हारी कोई चाह
कोई आह...
कोई एहसास
कोई आहट
कुछ तो हो...
जो तुम्हारे यहाँ होने का एहसास दिला जाए
और मै उस एहसास के सहारे
फिर से जी लूँ कुछ पल तुम्हारे साथ
क्योंकि तुम्हारे न होने पर भी
जीती तो हूँ तुम्हे
शायद उनसे ज्यादा जो है आसपास.

Thursday, October 8, 2009

कभी देखा है

कभी दिल के दरख्तों पर उगे काँटों को देखा है?
कभी बिन चाँद तारों की सियाह रातों को देखा है
कभी देखा है आंसू किस कदर खामोश होते है?
कभी दिल में छुपे मासूम जज्बातों को देखा है?
कभी देखा है कैसे जिंदगी दमन छुडाती है...
कभी बरसे बिना जाते हुए सावन को देखा है?
कभी देखा है उसके पैर में छाले पड़े है क्यों...
कभी सर्दी में खस्ताहाल बेचारों को देखा है?
कभी रोते हुए चेहरों को दो पल की हँसी दी है...
कभी गैरों के ज़ख्मों पर मरहम लगा कर देखा है?

Wednesday, October 7, 2009

तुम जब दिलो को तोड़ने की बात करते हो...
समझो खुदा को छोड़ने की बात करते हो...
ये वो लहर जिसका नही मुमकिन है रुक पाना...
तुम क्यों समुन्दर मोड़ने की बात करते हो?

Wednesday, September 23, 2009

गुजारिश है उनको ख़बर कर दे मौला...

जिन्हें आजतक ये ख़बर हो न पाई ;

खुदा एक सबका, खुदा नेक सबका ...

इसी सोच में है सभी की भलाई .

Tuesday, September 1, 2009

जिंदगी

बैठी अकेली सोचती हूँ जिंदगी क्या चीज़ है…
मन में दबी सी चाहतों की अनमनी सी खीज है,

सपने बहुत, चाहत बहुत, पर कौन पूरी कर सका
है ख्वाब सबके एक से, पर सबने सबसे है ढका।

क्यों सोचते इतना है हम दुनिया कहेगी क्या भला...
है जख्म मेरे जिस्म के तो दर्द भी मैंने सहा।

आओ करे कुछ ख्वाब पूरे छोड़ कर दुनिया के गम....
बस आज हे है जिंदगी, कल जाने हो या न हो हम.

हर लम्हा घुलता जाता है

हर लम्हा घुलता जाता है...

कच्चे रंग की दीवारों सा बारिश में घुलता जाता है।


हर लम्हा उड़ता जाता है...

आवारा क़दमों के जैसा अनजान गली मुड़ जाता है।


हर लम्हा कुछ कुछ कहता है...

कोशिश रुकने की करता है फिर भी ये बहता रहता है।


हर लम्हा ख्वाब सजाता है...

कुछ पूरे भी हो जाते हैं, कुछ आधा सा रह जाता है।


हर लम्हा अंजाना सा है...

पल में पहचान बढाता है, आता है और खो जाता है।


हर लम्हे को जी कर देखा...

और जाना इसका जाना है, क्यों अपना इसको माना है।


जी लो जी भरकर अभी इसे...

ये वापस फिर न आना है, खोने से पहले पाना है.

Friday, August 14, 2009

जन्नत

बहुत खुशकिस्मत है वो धूप ,
जो चूमती है मेरे घर के आँगन को …

बहुत खुशकिस्मत है वो हवा ,
जो फूँक मरकर उडाती है मेरे घर के परदों को …

बहुत खुशकिस्मत है वो बारिश ,
जो भिगोती है मेरे घर के फर्श , दीवारों और पेडों को …

क्योंकि ज़मीन पर जन्नत को चूने का मौका ,
हर किसी को नही मिलता .

कभी खुल कर जिंदगी से हाथ मिलाना

कभी खुल कर जिंदगी से हाथ मिलाना
वो जैसी है उसे वैसे ही अपनाना
मत टटोलना उसके अन्दर की छुपी बुराइयों को
उसके बेसुरेपन को सुर में गुनगुनाना

उसकी कड़वाहट में कुछ मिठास घोलना
उसकी बाँहों को थाम आहिस्ता से डोलना
उसकी आँखों में आँखे डालकर उसे समझना
जब भी बोलना कुछ अपना सा बोलना

देखना धीरे धीरे जिंदगी सुर में गुनगुनायेगी
हर बिगड़ी हुई बात अपनेआप बन जायेगी
तुम सोचते रह जाओगे ये हुआ कैसे??
और वो कोने में खड़ी तुम्हे देख कर मुस्कुराएगी

Thursday, July 30, 2009

चमकती चुभन से बेहतर झिलमिलाती छुअन है

सब जानते है सूरज की रौशनी के आगे कोई नही टिक पाया...
उसके जैसा उजाला किसी ने नही फैलाया ….
पर फिर भी अँधेरी रातों में
टिमटिमाते जुगनू , झिलमिलाते दिए और तारों की कतारें
क्या दिल को नही लुभाती ?
क्या उनकी सुकून देती रौशनी कुछ एहसास नही जगाती ?
क्यों लोग रूमानी बातें candle light में बताते है ?
क्यों मन के अंदरूनी जज़्बात अंधेरे में ही जगमगाते है ?
क्योंकि चमकती चुभन से बेहतर झिलमिलाती छुअन है
हर दमकती रौशनी के पीछे
छाता लगाकर बैठा हुआ एक नटखट सा मन है
जो चाहता है थोड़ा सा अँधेरा जिसमे वो कर सके मनमानी
और दुनिया न जान पाए उसकी खुराफातों की कहानी

Tuesday, July 28, 2009

टूटा हुआ पत्ता

पेड़ से टूट कर गिरे
सूखे पीले पत्ते की तरह
मै ज़मीन पर पड़ी
हवा के झोंको से थरथराती
कांपती और सहम कर
हवा के थपेडों से खिसक कर
किसी कोने में सरक जाती
और सोचती की किसी दिन
कोई लम्हा चरमरा कर चला जाएगा
मेरी इस कमज़ोर सी पहचान को
लेकिन किसे पता था
की किसी कोई प्यार से भरा हुआ दिल
और नर्म सी हथेलियों से मुझे उठाकर
रख देगा किसी रोमांटिक सी नोवेल के बीच
और मै उन प्यार भरे लफ्जों के सहारे
फिर से हरी हो जाउंगी .

Wednesday, July 22, 2009

A web space for your poetry


Hello Mam!
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I hope you will like it!